जयपुर : अरावली पहाड़ियों के मुद्दे पर सियासत गरमा गई है। ऐसी आशंकाएं जताई जा रही हैं कि अरावली पहाड़ियों की नई ऊंचाई आधारित परिभाषा से 100 मीटर से कम ऊंचाई वाले इलाकों में माइनिंग की इजाजत मिल सकती है। लेकिन केंद्र सरकार ने 100 मीटर से नीचे के क्षेत्रों में खनन की अनुमति दिए जाने के दावों को खारिज कर दिया है। सरकार ने यह भी साफ किया है कि प्रतिबंध संपूर्ण पहाड़ी प्रणालियों और उनके भीतर स्थित भू-आकृतियों पर लागू होते हैं, न कि केवल पहाड़ी के शिखर या ढलान पर। इस रिपोर्ट में जानें आज के घटनाक्रम।
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि अरावली को बचाना विकल्प नहीं, संकल्प होना चाहिए। अरावली बचेगी तभी एनसीआर बचेगा। अरावली को बचाना अपरिहार्य है क्योंकि यह दिल्ली और एनसीआर के लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच है। अरावली से ही एनसीआर का तापमान नियंत्रित होता है। अरावली ही पर्यावरण को बचा सकती है। अरावली से ही एनसीआर की जैव विविधता बची है। अरावली गुम हो रहे परिंदों को वापस बुला सकती है। अरावली को बचाना दिल्ली के भविष्य को बचाना है।
पर्यावरण कार्यकर्ताओं का विरोध प्रदर्शन
वहीं पर्यावरण कार्यकर्ताओं ने शनिवार को हरियाणा के गुरुग्राम और राजस्थान के उदयपुर में अरावली को बचाने को लेकर प्रदर्शन किया। गुरुग्राम में बड़ी संख्या में कार्यकर्ता, सामाजिक संगठनों के सदस्य और स्थानीय लोग मंत्री राव नरबीर सिंह के आवास के बाहर जुटे और विरोध प्रदर्शन किया। उन्होंने चेतावनी दी कि कोई भी बदलाव देश की सबसे पुरानी पर्वत श्रृंखलाओं में शुमार इस पर्वत श्रृंखला के इकोलॉजिकल संतुलन को नुकसान पहुंचा सकता है। राजस्थान में भी विपक्ष ने इस मुद्दे को लेकर जोरदार हमला बोला।
विधानसभा में विपक्ष का हमला
राजस्थान विधानसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस नेता टीकाराम जूली ने कहा कि केंद्र सरकार का अरावली रेंज को फिर से परिभाषित करने का कदम बड़े पैमाने पर मरुस्थलीकरण की वजह बन सकता है। अरावली राजस्थान की जीवन रेखा है। अरावली ही है जो रेगिस्तान को रोकती है। वैज्ञानिकों ने भी माना कि यदि अरावली नहीं होता तो दिल्ली तक का पूरा इलाका रेगिस्तान नजर आता।
टीकाराम जूली ने आगे कहा कि 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को माइनिंग के लिए खोलने से इस रेंज के अधिकांश हिस्से को ऐसा नुकसान पहुंच सकता है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती है। उन्होंने सरकार पर दोहरे मापदंड का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि एक तरफ आप ‘एक पेड़ मां के नाम’ नाम से अभियान चला रहे हैं, तो दूसरी ओर आप अपने दोस्तों के लिए लाखों पेड़ काट रहे हैं। यह गलत है।
#SaveAravalli अभियान और अशोक गहलोत का बयान
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने #SaveAravalli अभियान के समर्थन में अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल पिक्चर बदल दी। अशोक गहलोत ने कहा कि यह सत्य है कि साल 2003 में तत्कालीन सरकार को विशेषज्ञों ने सलाह दी थी कि अरावली में पहाड़ों की परिभाषा ‘100 मीटर’ के आधार पर तय की जाए। इस बात को राज्य सरकार ने 16 फरवरी 2010 को सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा, लेकिन कोर्ट ने सिर्फ तीन दिन बाद ही इसे नामंजूर कर दिया था।
गहलोत ने बताया कि उनकी सरकार ने अदालत के फैसले का पूरा सम्मान किया और भारतीय वन सर्वेक्षण के जरिए पहाड़ों की सही मैपिंग करवाई। उन्होंने सवाल उठाया कि जब सुप्रीम कोर्ट 14 साल पहले ही इस ‘100 मीटर’ वाली परिभाषा को खारिज कर चुका था, तो राजस्थान की मौजूदा भाजपा सरकार ने 2024 में फिर से उसी पुरानी बात का समर्थन क्यों किया और केंद्र सरकार को इसकी सिफारिश क्यों भेजी। क्या सरकार किसी के दबाव में थी या इसके पीछे कोई बड़ी साजिश है।
उदयपुर में वकीलों का प्रदर्शन
अरावली मुद्दे पर शनिवार को राजस्थान के उदयपुर में बड़ी संख्या में वकीलों ने विरोध प्रदर्शन किया। वकीलों ने अरावली पर्वतमाला की ऊंचाई पर आधारित नई परिभाषा पर चिंता जताई। यूनिवार्ता की रिपोर्ट के मुताबिक, इस कथित नई परिभाषा के अनुसार केवल उसी भू-आकृति को अरावली पहाड़ियों में शामिल किया जाएगा जो कम से कम 100 मीटर ऊंची हो। वकीलों ने न्यायालय परिसर से जिला कलेक्ट्रेट तक मार्च किया। उन्होंने अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट को राष्ट्रपति के नाम एक ज्ञापन सौंपा।
2010 बनाम 2024: 100 मीटर परिभाषा का सच
पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अरावली मुद्दे पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्री भूपेंद्र यादव एवं राजेन्द्र राठौड़ द्वारा भाजपा की ओर से जारी मिथ्यापूर्ण बयानों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि भाजपा सरकार की खनन माफिया से मिलीभगत और गलत नीतियों पर पर्दा डालने के लिए अनर्गल आरोप लगा रही है, जबकि सच्चाई सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है।
गहलोत ने कहा कि यह सत्य है कि 2003 में तत्कालीन राज्य सरकार को विशेषज्ञ समिति (एक्सपर्ट कमिटी) ने आजीविका और रोजगार के दृष्टिकोण से ‘100 मीटर’ की परिभाषा की सिफारिश की थी, जिसे राज्य सरकार ने एफिडेविट के माध्यम से 16 फरवरी 2010 को माननीय सुप्रीम कोर्ट के सामने रखा, लेकिन माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इसे महज तीन दिन बाद 19 फरवरी 2010 को ही खारिज कर दिया था। हमारी सरकार ने न्यायपालिका के आदेश का पूर्ण सम्मान करते हुए इसे स्वीकार किया और फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया (FSI) से मैपिंग करवाई।


