जयपुर : पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने गुरुवार को अरावली संरक्षण के पक्ष में चल रहे सेव अरावली अभियान का समर्थन करते हुए अपनी सोशल मीडिया प्रोफाइल पिक्चर (डीपी) बदली। गहलोत ने कहा कि यह केवल एक फोटो बदलना नहीं, बल्कि उस नई परिभाषा के खिलाफ एक सांकेतिक विरोध है, जिसके तहत 100 मीटर से कम ऊंचाई वाली पहाड़ियों को ‘अरावली’ मानने से इनकार किया जा रहा है। उन्होंने जनता से भी अपील की कि वे अपनी डीपी बदलकर इस मुहिम से जुड़ें।

अरावली उत्तर भारत की ‘ग्रीन वॉल’
गहलोत ने कहा कि अरावली कोई साधारण पहाड़ नहीं, बल्कि प्रकृति द्वारा बनाई गई एक मजबूत ‘ग्रीन वॉल’ है। यह थार रेगिस्तान की रेत और गर्म हवाओं (लू) को दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उपजाऊ मैदानों की ओर बढ़ने से रोकती है। यदि ‘गैपिंग एरिया’ या छोटी पहाड़ियों को खनन के लिए खोल दिया गया, तो रेगिस्तान धीरे-धीरे आबादी वाले क्षेत्रों तक पहुंच जाएगा और तापमान में अप्रत्याशित वृद्धि होगी।
एनसीआर के लिए फेफड़ों का काम करती हैं पहाड़ियाँ
गहलोत ने कहा कि अरावली की पहाड़ियाँ और जंगल एनसीआर और आसपास के शहरों के लिए ‘फेफड़ों’ का काम करते हैं। ये धूल भरी आंधियों को रोकने के साथ-साथ प्रदूषण कम करने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। उन्होंने चिंता जताई कि जब अरावली के रहते हालात इतने गंभीर हैं, तो इसके बिना स्थिति कितनी भयावह होगी, इसकी कल्पना ही डरावनी है।
जल संरक्षण और इकोलॉजी पर खतरा
अरावली को जल संरक्षण का मुख्य आधार बताते हुए गहलोत ने कहा कि इसकी चट्टानें वर्षा जल को जमीन के भीतर भेजकर भूजल रिचार्ज करती हैं। यदि पहाड़ खत्म हुए, तो आने वाले समय में पीने के पानी की भारी किल्लत होगी, वन्यजीव लुप्त हो जाएंगे और पूरी इकोलॉजी खतरे में पड़ जाएगी।
छोटी पहाड़ियाँ भी उतनी ही जरूरी
गहलोत ने जोर देकर कहा कि वैज्ञानिक दृष्टि से अरावली एक निरंतर शृंखला है। इसकी छोटी पहाड़ियाँ भी उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी बड़ी चोटियाँ। यदि दीवार से एक भी ईंट निकाली गई, तो पूरी सुरक्षा कमजोर हो जाती है।
केंद्र और सुप्रीम कोर्ट से पुनर्विचार की अपील
गहलोत ने केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट से अपील की कि भावी पीढ़ियों के सुरक्षित भविष्य के लिए अरावली की नई परिभाषा पर पुनर्विचार किया जाए। उन्होंने कहा कि अरावली को ‘फीते’ या ‘ऊंचाई’ के आधार पर नहीं, बल्कि इसके ‘पर्यावरणीय योगदान’ के आधार पर आंका जाना चाहिए।


